Lekhika Ranchi

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शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की रचनाएंः श्रीकांत भाग--6


श्रीकांत ः शरदचंद्र 
अध्याय 6

उस दिन फिर मेरा जी न चाहा कि नीचे जाऊँ, इसलिए, नन्द और टगर के युद्ध का अन्त किस तरह हुआ- सन्धि-पत्र में कौन-कौन-सी शर्तें निश्चित हुईं, सो मैं कुछ नहीं जान पाया। परन्तु, बाद में देखा कि शर्तें चाहे जो हों, विपत्ति के समय वह 'स्कैप ऑफ पेपर' (कागज का रद्दी टुकड़ा) किसी काम नहीं आता। जब जिसे जरूरत होती है, खिलवाड़ की तरह उसे फाड़ फेंकता है और दूसरे का ब्यूह भेद कर डालता है। बीस बरस से ये दोनों यही करते आए हैं तथा और भी बीस बरस तक ऐसा न करते रहेंगे, इसकी शपथ स्वयं विधाता भी नहीं ले सकेंगे।

सारे दिन तो आकाश में बादलों के टुकड़े यहाँ से वहाँ घूमते रहे; परन्तु, अब शाम के लगभग एक गहरा काला बादल सारे क्षितिज को ढँककर धीरे-धीरे सिर उठाकर, ऊपर आने लगा। मालूम हुआ कि खलासियों के मुँह और ऑंखों पर मानो घबराहट की छाया आ पड़ी है। उनके चलने-फिरने में भी मानो एक प्रकार के घबराहट के चिह्न नजर आने लगे हैं जो इसके पहले नहीं थे।

एक बूढ़े-से खलासी को बुलाकर पूछा, “अजी चौधरी, आज रात को भी क्या कल ही के समान ऑंधी आवेगी?”

विनय से चौधरीजी वश में हो गये। खड़े होकर बोले, “मालिक, नीचे चले जाइए; कप्तान ने कहा है, साइक्लोन (= बण्ण्डर) उठ सकता है।”

पन्द्रह मिनट बाद ही देखा कि उसका कथन निर्मल नहीं है। ऊपर जितने भी यात्री थे उन सबको खलासी लोग एक तरह से जबरन 'होल्डर' में उतारने लगे। दो-चार लोगों के आपत्ति करने पर सेकण्ड ऑफिसर ने खुद आकर उन्हें धक्के मारकर उठा दिया और उनके बिस्तर वगैरह लातों से हटाना शुरू कर दिया। मेरा ट्रंक, बिस्तर आदि तो खलासी लोग झटपट नीचे उठा ले गये; किन्तु, मैं खुद एक तरफ खिसक गया। मैंने सुना कि सबको- अर्थात् जो हतभागे दस रुपये से अधिक किराया नहीं दे सकते थे उन्हें- उस जहाज के गर्भ-गृह में भर के उसका मुँह बन्द कर दिया जायेगा। उनकी खैरियत के लिए यही एक उपाय था।

किन्तु, मुझे खुद अपने लिए खैरियत की यह व्यवस्था किसी तरह पसन्द नहीं आई। इसके पहले साइक्लोन नामक वस्तु को समुद्र में तो क्या, जमीन पर भी नहीं देखा था। कैसा इसका उपद्रव होता है, कैसा इसका स्वरूप है और अमंगल करने की कितनी इसकी शक्ति है, मैं बिल्कुहल नहीं जानता था। मन ही मन सोचने लगा कि मेरे भाग्य से यदि ऐसी वस्तु का आविर्भाव होना सन्निकट ही है, तो फिर उसे बगैर अच्छी तरह देखे नहीं छोडूँगा। भाग्य में जो बदा हो सो हो। और तूफान में यदि जहाज डूबना ही है, तो इस तरह प्लेग के चूहे की तरह पिंजरे में कैद होकर और सिर पटक-पटककर खारे पानी में क्यों मरूँ? इसकी अपेक्षा जब तक बने, हाथ-पाँव हिलाकर, लहरों के हिंडोले पर झूलते-उतराते हुए एक गोता लगाकर पाताल के राजमहल का अतिथि होना अच्छा। किन्तु, यह उस समय मुझे मालूम न था कि राजा का जहाज आगे-पीछे लाखों-करोड़ों हिंस्र अनुचरों के बगैर काले पानी में एक डग भी नहीं चलता और उन्हें लोगों का कलेवा कर डालने में घड़ी-भर की देर नहीं लगती।

बहुत समय से थोड़ी-थोड़ी वृष्टि हो रही थी। शाम के लगभग हवा और वृष्टि दोनों का ही वेग बढ़ गया। यह हालत हो गयी कि भाग निकलने की भी कोई जुगत न रही। जहाँ भी मिले सुविधानुसार एक आश्रय-स्थान खोजे बगैरे काम नहीं चल सकता। शाम के अंधेरे में जब मैं अपने स्थान पर वापिस आया तब ऊपर का डेक निर्जन हो गया था। मस्तूल के पास उचककर देखा कि ठीक सामने ही बूढ़ा कप्तान हाथ में दूरबीन लिये ब्रिज के ऊपर यहाँ से वहाँ दौड़ रहा है। इस डर से कि एकाएक उसकी शुभ दृष्टि में पड़कर फिर से, इतने कष्ट के बाद भी, दुबारा उसी गव् में न घुसना पड़े, एक ऐसी जगह खोजने लगा जहाँ सुभीते से बैठ सकूँ। खोजते-खोजते आखिर एक जगह मिल गयी जिसकी कि मैंने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। एक किनारे बहुत-सी भेड़ों, मुर्गियों और बत्तखों के पिंजड़े एक के ऊपर एक गँजे हुए थे। उछलकर मंब उन्हीं के ऊपर बैठ गया। जान पड़ा, ऐसी निरापद जगह शायद जहाज भर में और कहीं नहीं है। किन्तु, तब भी बहुत-सी बातें जानना बाकी थीं।

वृष्टि, हवा अन्धकार और जहाज का झूलना- ये सभी धीरे-धीरे अधिकाधिक बढ़ने लगे। समुद्र की लहरों का आकार देखकर मैंने मन ही मन सोचा, यही है शायद वह साइक्लोन; किन्तु वह सागर के समीप सिर्फ गौ के खुर के गढ़े के समान ही था, इस बात को अच्छी तरह हृदयंगम करने के लिए मुझे और भी थोड़ी देर ठहरना पड़ा।

एकाएक छाती के भीतर तक कँपकँपी पैदा करता हुआ जहाज का भोंपू बज उठा। ऊपर की ओर ताका तो जान पड़ा, मानो किसी मन्त्र के बल से आकाश का चेहरा ही बदल गया है। वे बादल अब नहीं रहे- मालूम हुआ कि सब तरफ से छिन्न-भिन्न होकर जैसे सम्पूर्ण आकाश हलका होकर कहीं ऊपर की ओर उड़ा जा रहा है। दूसरे ही क्षण समुद्र के एक प्रान्त से एक ऐसा विकट शब्द तेजी से आकर कानों में पैठ गया कि मैं नहीं जानता, उसकी किसके साथ तुलना करूँ।

लकड़पन में अंधेरी रातों में दादी की छाती से लगकर एक कहानी सुना करता था। किसी राजपुत्र ने डुबकी लगाकर तालाब के भीतर से एक चाँदी की डिबिया निकाली थी और उसमें बन्द सात सौ राक्षसियों के प्राणरूप एक सोने के भौंरे को चुटकी से मसलकर मार डाला था। फिर वे सात-सौ राक्षसियाँ मृत्यु यन्त्रणा से चीखती चिल्लाती हुईं सारी पृथ्वी को पैरों के बोझ-से कुचलतीं चूर्ण-विचूर्ण करतीं दौड़ आई थीं। वैसा ही यह भी कहीं कोई विप्ल्व-सा हो रहा है, ऐसा जान पड़ा; परन्तु, इस दफे सात सौ करोड़ राक्षसियाँ हैं- वे उन्मत्त भाव से कोलाहल करती हुई इसी ओर दौड़ी आ रही हैं। आ भी पड़ीं- राक्षसियाँ नहीं, परन्तु, तूफानी हवाएँ। तब मैंने सोचा कि इनकी अपेक्षा तो उन राक्षसियों का आना ही कहीं अच्छा था।

इस दुर्जेय वायु की शक्ति का वर्णन करना तो बहुत दूर की बात है, समग्र चेतना से अनुभव करना भी मानो मनुष्य के सामर्थ्य के बाहर है। सम्पूर्ण ज्ञान-बुद्धि को लुप्त करके केवल एक ही धारणा मेरे मन के भीतर अस्पष्ट और निस्संदिग्ध रूप से जागती रह गयी, कि दुनिया की मियाद एकबारगी खत्म होने में अब और कितनी-सी देर है। पास में ही जो एक लोहे का खूँटा था, गले की चादर से मैंने अपने आपको उसी से बाँध रक्खा था। प्रत्येक क्षण मेरे मन में यही खयाल उठने लगा कि बस मुझे यह हवा इस दफे ही खूँटे से छुड़ा देगी और उड़ा ले जाकर समुद्र में जा पटकेगी।

एकाएक जान बड़ा कि काला पानी मानो भीतर के धक्कों से घरघराता हुआ क्रम-क्रम से जहाज के ऊपर चढ़ रहा है। दूर को ऑंख उठाई तो उस तरफ से दृष्टि को पुन: वापस न लौटा सका। एक दफे जान पड़ा वह तो कोई पड़ाव है, किन्तु दूसरे ही क्षण जब भ्रम भंग हुआ तब हाथ जोड़कर मैंने कहा, “भगवान, जैसे तुमने ये दोनों नेत्र दिए थे, वैसे ही आज इन्हें सार्थक भी कर दिया। इतने दिनों तक तो संसार में सर्वत्र ही ऑंखें खोले घूमता फिरा हूँ। किन्तु, तुम्हारी इस सृष्टि की तुलना तो कहीं भी नहीं देखी थी। जहाँ तक दृष्टि पहुँचती है एक अचिन्तनीय विराट्काय महातरंग सिर पर चाँदी-सा शुभ्र किरीट धारण किये तेज चाल से आगे बढ़ती हुई आ रही है। जगत में और भी क्या कोई इतना बड़ा विस्मय है?”

समुद्र में न जाने कितने लोग आया-जाया करते हैं; मैं खुद भी तो कितनी ही दफे इस रास्ते गया-आया हूँ; किन्तु ऐसा दृश्य तो पहले कभी कहीं नहीं देखा था। इसके सिवाय, जिस मनुष्य ने ऑंखों नहीं देखा, उसे समझाकर यह बताना कल्पना के बाप के लिए भी सम्भव नहीं कि पानी की लहर किसी तरह इतनी बड़ी हो सकती है!

मन ही मन बोला, हे तरंग-सम्राट! तुम्हारी टक्कर से हमारा जो कुछ होगा, उसे तो हम जानते ही हैं, किन्तु, अब भी तो तुम्हें यहाँ तक आ पहुँचने में आखिर आधा मिनट की देर है, तब कम से कम उतने समय तक तो मैं अच्छी तरह जी-भरकर तुम्हारे कलेवर को देख लूँ।

यह भाव किसी वस्तु की सुविपुल ऊँचाई और उससे भी अधिक विस्तार देखकर ही इस तरह मन में उत्पन्न नहीं हुआ करता, क्योंकि यदि ऐसा हो तो इसके लिए हिमालय का कोई भी अंग-प्रत्यंग यथेष्ट है। किन्तु, जो यह विराट व्यापार सजीव के समान दौड़ा आ रहा है, उसकी अपरिमेय शक्ति की अनुभूति ने ही मुझे अभिभूत कर डाला।

किन्तु, समुद्र-जल के टकराने से जो एक तरह की ज्वाला सी बार-बार चमक उठती है वह ज्वाला विचित्र रेखाओं में यदि इसके सिर पर न खेलती होती तो गम्भीर कृष्ण जल-राशि की विपुलता को मैं इस अन्धकार में शायद उस तरह न देख पाता। इस समय जितनी भी दूर तक मेरी दृष्टि जाती है उतनी ही दूर तक इस आलोक-माला ने मानो छोटे-छोटे प्रदीपों को जलाकर इस भयंकर सौन्दर्य का चेहरा मेरी ऑंखों के सामने खोल दिया है।

जहाज का भोंपू असीम वायु-वेग से थरथर काँपता हुआ लगातार बजने लगा और भयार्त्त खलासियों का दल अल्लाह के कानों तक अपना आकुल आवेदन पहुँचा देने के लिए गला फाड़-फाड़कर एक साथ चिल्लाने लगा।

जिसके शुभागमन के निमित्त इतना भय, इतनी चीख-पुकार- इतना उद्योग-आयोजन हो रहा था, वह महातरंग आखिर आ पहुँची। एक प्रकाण्ड प्रकार की उलट-पलट के बीच हरवल्लभ के समान मुझे भी पहले जान पड़ा कि निश्चय से ही हम डूब गये हैं; इसलिए, दुर्गा का नाम जपने से अब और क्या हो सकता है। आस-पास ऊपर-नीचे, चारों ओर काला जल ही जल है! जहाज समेत सब लोग पाताल के राजमहल में निमन्त्रण खाने जा रहे हैं, इसमें अब कोई सन्देह नहीं रहा। इस समय चिन्ता केवल यही है कि खाना-पीना आदि वहाँ न जाने किस किस्म का होगा।

किन्तु, करीब मिनट-भर बाद ही दिखाई दिया-नहीं, डूबे नहीं हैं, जहाज समेत हम सब केवल जल के ऊपर उतरा रहे हैं। इसके सिवाय लहर के ऊपर लहर आना भी खत्म नहीं हुआ है, इसलिए हम लोगों का हिंडोला झूलना भी समाप्त नहीं हुआ है। इतनी देर के बाद अब पता लगा कि क्यों कप्तान-साहब ने लोगों को जानवरों के समान गढ़े में डालकर ताला लगवा दिया है। डेक के ऊपर से बीच-बीच में मानो जल की धारा बह जाने लगी। मेरे नीचे की बत्तखें और मुर्गियाँ कितनी ही दफे फड़फड़ाकर और भेड़ें कई बार 'मैं-मैं' करके भव-लीला समाप्त कर गयीं। सिर्फ मैं ही उनके ऊपर आश्रय ग्रहण किये, लोहे के ख्रुंटे को जोर से पकड़े हुए, अपनी भव-लीला सुरक्षित बनाए रहा।

किन्तु, इसी समय एक और प्रकार की आफत आ जुटी। केवल जल के छींटे ही मेरे शरीर में सुई की तरह छिद रहे हों सो बात नहीं- समस्त कपड़े और धोती के भीग जाने से और प्रचण्ड वायु से इतनी ठण्ड लगने लगी कि दाँत कटकट बजने लगे। खयाल आया, कि हाल जल में डूबने से तो किसी तरह बच भी सकता हूँ, किन्तु निमोनिया के हाथ से किस तरह परित्राण पाऊँगा? और, यह तो मैंने नि:संशय अनुभव किया कि इसी तरह यदि और भी कुछ देर बैठा रहूँगा तो परित्राण पाना सचमुच ही असम्भव हो जायेगा। इसलिए जिस तरह भी हो, इस स्थान का परित्याग करके किसी ऐसी जगह आश्रय लेना चाहिए जहाँ कि जल के छींटे बर्छी के फल की तरह शरीर में न चुभें। एक बार सोचा कि भेड़ों के पिंजरे में घुस जाऊँ तो कैसा हो! किन्तु वह भी कितना सुरक्षित है? उसके भीतर यदि खारे जल की धारा प्रवेश कर जाय तो ठीक 'मैं-मैं' करके न सही, पर 'माँ-माँ' करके अन्त में अवश्य ही इह-लीला समाप्त करनी पड़ेगी।

सिर्फ एक उपाय है। जहाज जब पार्श्व-परिवर्तन करता है तब भागने का कुछ मौका मिल जाता है; इसलिए, उस समय यदि कहीं जाकर घुस सकूँ तो शायद जान बच जाय। जो सोचा, वही किया। किन्तु पिंजरों पर से नीचे उतरकर, तीन बार दौड़कर, और तीन बार बैठकर, किसी तरह जब मैं सेकण्ड क्लास के केबिन के द्वार पर पहुँचा, तब देखा, द्वार बन्द है। लोहे के किवाड़ों ने हजार धक्का-मुक्की करने पर भी रास्ता नहीं दिया। इसलिए, वही रास्ता फिर उसी तरह तय करके मैं फर्स्ट क्लास के दरवाजे पर आ उपस्थित हुआ। इस दफे भाग्य देवता ने सुप्रसन्न होकर एक निराले कमरे में आश्रय दे दिया; और जरा भी दुविधा न करके मैं किवाड़ बन्द करके पलंग पर जा सोया।

रात के बारह बजे के भीतर तूफान तो थम गया, किन्तु समुद्र का गुस्सा दूसरे दिन भोर तक भी शान्त न हुआ।

मेरे सामान का और साथी मुसाफिरों का क्या हाल हुआ, और, खास तौर से सपत्नीक मिस्रीजी ने किस तरह रात बितई, यह जानने के लिए सुबह मैं नीचे उतर गया। कल नन्द मिस्री ने जरा दिल्लगी करते हुए कहा था कि “बाबूजी, साढ़े बत्तीस प्रकार के चबेने के समान हम लोग आपस में गड्डमड्ड हो गये थे और अभी ही कुछ देर हुई, सब कोई अपनी-अपनी जगह आकर बैठे हैं।” आज का गड्डमड्ड साढ़े बत्तीस प्रकार में गिना जा सकता है या नहीं, सो मुझे नहीं मालूम; किन्तु, इस समय तक कोई भी अपने निजी स्थान पर लौटकर न आने पाया था यह मैंने अपनी ऑंखों देखा।

उन लोगों की व्यवस्था देखने पर सचमुच ही रुलाई आने लगी। इन तीन-चार-सौ यात्रियों में से किसी के समर्थ रहने की बात तो दूर-शायद, अक्षत भी कोई नहीं बचा था।

औरतें सिल पर जिस तहर लोढ़े से मसाला बाँटती हैं, कल का साइक्लोन इन तीन-चार सौ लोगों का ठीक उसी तरह सारी रात मसाला बाँटता रहा। सारे माल-असबाब के सहित-बक्स-पेटियों आदि के सहित ये सब लोग रात-भर जहाज के इस किनारे से उस किनारे तक लुढ़कते फिरे हैं। वमन तथा अन्य दो क्रियाएँ इतनी अधिक की गयी हैं कि दुर्गन्ध के मारे खड़ा होना भी भारी हो रहा है और इस समय डॉक्टर बाबू जहाज के मेहतर और खलासियों को साथ लिये इन लोगों का 'पंकोद्धार' करने की व्यवस्था कर रहे हैं।

डॉक्टर बाबू ऊपर से नीचे तक मेरा बार-बार निरीक्षण करके शायद मुझे सेकण्ड क्लास का मुसाफिर समझ बैठे थे, फिर भी, अत्यन्त आश्चर्य के साथ बोले, “महाशय तो खूब ताजे दिख रहे हैं; जान पड़ता है कि आराम करने के लिए कोई हैमॉक (भ्उउवबा= जहाज पर रहनेवाला एक तरह का एक झुलन-खटोला) पा गये थे, क्यों न?”

“हैमॉक कहाँ से पाता महाशय, पाया था एक भेड़ों का पिंजरा। इसीलिए तरो-ताजा दीख रहा हूँ।”

डॉक्टर बाबू मुँह फाड़कर मेरी ओर ताकते रह गये। मैं बोला, “डॉक्टर बाबू, यह अधम भी इसी नरक-कुण्ड का यात्री है। किन्तु, कमजोर होने के सबब यहाँ घुस न सका- शुरु से ही डेक के ऊपर रहा आया। कल साइक्लोन की खबर पाकर कुछ देर भेड़ों के पिंजरों के ऊपर बैठकर, और रात को फर्स्ट क्लास के एक कमरे में अनधिकार प्रवेश करके आत्मरक्षा कर सका हूँ। क्या कहते हैं आप, मैंने कुछ अनुचित तो नहीं किया?”

सारा इतिहास सुनकर डॉक्टर बाबू इतने प्रसन्न हुए कि उसी क्षण उन्होंने मुझे अपने निजी कमरे में बाकी दो दिन काटने के लिए सादर निमन्त्रण दे दिया। अवश्य ही उस निमन्त्रण को मैं स्वीकार नहीं कर सका- केवल एक चेयर मैंने उनसे ले ली।

दोपहर को भूख की मार से मुर्दे की तरह चेयर पर पड़ा हुआ ब्रह्माण्ड की समस्त खाद्य-वस्तुओं का ध्या न कर रहा था- कहाँ जाकर क्या कौशल करूँ कि कुछ खाने को मिल जाय। इसी समय, जब कि मैं इस दुश्चिन्ता में डूबा हुआ था, खिदिरपुर के मुसलमान दर्जियों में से एक ने आकर कहा, “बाबू साहब, एक बंगाली औरत आपको बुला रही है।”

“औरत?” समझा कि टगर होगी। क्यों बुला रही है सो भी अनुमान कर लेना मेरे लिए कठिन नहीं था। निश्चय ही मिस्री के साथ स्वामी और स्त्री के स्वत्व सिद्ध करने के व्यापार में फिर मतभेद उपस्थित हो गया है। किन्तु, मेरी जरूरत क्यों आ पड़ी? ज्तपंस इल वतकमंस (अग्नि-परीक्षा के) सिवाय बाहर के किसी आदमी ने आकर किसी दिन इसकी मीमाँसा कर दी हो, यह सोचना भी कठिन है।

मैंने कहा, “घण्टे-भर बाद आऊँगा, कह देना।”

उस मनुष्य ने कुण्ठित होकर कहा, “नहीं बाबू साहब, बड़ी मिन्नत करके बुला रही है...”

“मिन्नत करके?” किन्तु टगर तो मिन्नत करने वाली औरत नहीं है। पूछा “उसके साथ का मर्द क्या कर रहा है?”

वह बोला, “उसी की बीमारी के कारण तो आपको बुला रही है।”

बीमारी होना बिल्कु'ल ही अचरज की बात नहीं थी, इसलिए मैं उठ खड़ा हुआ। वह मुझे अपने साथ नीचे ले गया। काफी दूर पर एक कोने में कुण्डली किये हुए मोटे-मोटे रस्से रखे हुए थे। उन्हीं की आड़ में एक बाईस-तेईस वर्ष की बंगाली स्त्री बैठी थी। पहले कभी उस पर मेरी नजर नहीं पड़ी थी। पास में ही एक मैली शतरंजी के ऊपर करीब-करीब इसी उम्र का एक अत्यन्त क्षीणकाय युवक मुर्दे की तरह ऑंखों मूँदकर पड़ा हुआ है- वही बीमार है।

मेरे निकट आते ही उस औरत ने धीरे-धीरे अपने सिर का वस्त्र आगे खींच लिया, किन्तु मैं उसका मुँह देख चुका था।

वह मुख सन्दर कहा जाय तो बहस उठ सकती है, किन्तु फिर भी उपेक्षा करने योग्य नहीं था। ऊँचा कपाल स्त्रियों की सौन्दर्य-तालिका में कोई स्थान नहीं रखता, यह मुझे मालूम है; फिर भी, इस तरुणी के चौड़े मस्तक पर बुद्धि और विचार-शक्ति की एक ऐसी छाप लगी हुई देखी जिसे मैंने कदाचित् ही देखा है। मेरी अन्नदा जीजी का कपाल भी प्रशस्त था। इसका भी बहुत कुछ उसी तरह का था। माँग में सिन्दूर झलक रहा था, हाथ में लोहे की चूड़ियाँ¹ और शंख के वलयों को छोड़कर और कोई अलंकार नहीं था। ऑंग में एक सीधी-सादी रंगीन साड़ी थी।

परिचय न होने पर भी इतने स्वाभाविक ढंग से उसने बात की कि मैं विस्मित हो गया। वह बोली, “आपके साथ डॉक्टर बाबू का तो परिचय है, क्या एक दफे आप बुला सकते हैं?”

मैंने कहा, “आज ही उनसे परिचय हुआ है। फिर भी, जान पड़ता है, डॉक्टर बाबू भले आदमी हैं। किन्तु, उन्हें क्यों बुलाती हो?”

वह बोली, “यदि बुलाने पर विजिट देनी पड़ती हो, तो फिर जरूरत नहीं है; न होगा, ये ही थोड़ा कष्ट करके ऊपर चले चलेंगे।” इतना कहकर उसने उस रोगी आदमी को दिखा दिया।

मैंने सोचकर कहा, “जहाज के डॉक्टर को शायद कुछ भी देना नहीं होता। किन्तु, इन्हें हो क्या गया है?”

मैंने सोचा था कि रोगी इनका पति है; किन्तु, बातचीत से कुछ सन्देह हुआ। उस मनुष्य के मुँह के ऊपर कुछ झुककर उसने पूछा, “घर से चलते समय से ही तुम्हें पेट की बीमारी थी न?”

उस मनुष्य ने सिर हिला दिया, तब इसने सिर ऊपर उठाकर कहा, “हाँ, इन्हें पेट की बीमारी देश में ही हुई थी, किन्तु कल से बुखार आ गया। इस समय देखती हूँ कि बुखार तेज हो आया है, कुछ दवाई दिए बिना काम न चलेगा।”

मैंने भी स्वयं हाथ डालकर उसके शरीर का ताप देखा, वास्तव में बुखार खूब तेज था। डॉक्टर को बुलाने मैं ऊपर चला गया।

डॉक्टर बाबू नीचे आए, रोग-परीक्षा करके और दवाई का पुरजा देकर बोले, “चलो श्रीकान्त बाबू, कमरे में चलकर गप-शप करें।”

डॉक्टर बाबू खूब रंगीले थे। अपने कमरे में ले जाकर बोले, “चाय पीते हैं?” मैंने कहा, “हाँ, पीता हूँ।”

“और बिस्कुट?”

“सो भी खाता हूँ?”

“अच्छा।”

खाना-पीना समाप्त होने के बाद दोनों आमने-सामने कुर्सियों पर बैठ गये। डॉक्टर बाबू बोले, “आज कैसे जा भिड़े उस औरत से?”

मैंने कहा, “उसने ही मुझे बुला भेजा था।”

डॉक्टर बाबू इस तरह सिर हिलाकर कि मानो सब कुछ जानते हों, बोले, “बुलाना ही चाहिए- शादी-वादी की है या नहीं?”

मैंने कहा, “नहीं।”

डॉक्टर बाबू बोले, “तो बस, भिड़ जाओ। ऐसी कुछ बुरी नहीं है। उस आदमी का चेहरा देखा, उस पर टाईफाइड के लक्षण नजर आते हैं। कुछ भी हो, वह अधिक दिन न टिकेगा, यह निश्चित है। इस बीच उस पर नजर बनाए रखना। कहीं और कोई साला न भिड़ जाय।”

मैं अवाक् होकर बोला, “आप यह सब कह क्या रहे हैं, डॉक्टर बाबू?”

डॉक्टर बाबू जरा भी अप्रतिभ हुए बिना बोले, “अच्छा, वह छोकरा ही उसे घर से निकाल लाया है या उसी को वह बाहर निकाल लाई है- तुम्हें क्या मालूम होता है, श्रीकान्त बाबू? खूब फारवर्ड है। बातचीत तो बहुत अच्छी करती है।”

मैंने कहा, “इस तरह का खयाल आपके मन में क्यों आया?”

डॉक्टर बाबू बोले, “हर एक ट्रीप में तो देखता हूँ कि एक न एक है ही। पिछली दफे भी बेलघर की एक ऐसी ही जोड़ी थी। एक बार बर्मा में जाकर कदम तो रक्खो, तब देखोगे कि मेरी बात सच है या नहीं।”

उनकी बर्मा की बात बहुत कुछ सच है, यह मैंने बाद में अवश्य देखा; किन्तु उस समय तो ऊपर से नीचे तक मेरा सारा मन अरुचि से तीखा हो उठा। डॉक्टर बाबू से बिदा लेकर नन्द मिस्री की खबर लेने नीचे गया। घरवाली सहित मिस्री उस समय फलाहार की तैयारी कर रहा था। नमस्कार करने के बाद सबसे पहले उसने यह प्रश्न किया, “यह औरत कौन है, बाबू?...”

टगर सिर दर्द के कारण अपने सिर पर एक कपड़ा पगड़ी की तरह बाँध रही थी। एकदम फुसकारकर बोल उठी, “यह जानने की तुम्हें क्या गरज पड़ी है, बताओ तो सही?”

मिस्री ने मुझे मध्ययस्थ मानकर कहा, “देखी महाशय, इस औरत की ओछी तबियत? कौन बंगाली औरत रंगून जा रही है, यह पूछना भी जैसे पाप हो!”

टगर अपना सिर-दर्द भूल गयी और पगड़ी को फेंककर मेरी ओर ताकने लगी। उसने अपनी दोनों गोल-गोल ऑंखें फाड़कर कहा, “महाशय, टगर वैष्णवी के हाथ के नीचे से इन सरीखे से न जाने कितने मिस्री आदमी बनकर निकल गये हैं- अब भी क्या यह मेरी ऑंखों में धूल झोंक सकते हैं? अरे, तुम डॉक्टर हो कि वैद्य, जो मैं जरा-सा पानी लेने गयी, कि इतनी ही देर में, चट से दौड़कर वहाँ देखने जा पहुँचे? क्यों, कौन है वह? यह अच्छा नहीं होगा, सो कहे देती हूँ, मिस्री। यदि दुबारा फिर कभी वहाँ जाते देखूँगी तो फिर एक दिन या तो तुम ही हो या मैं ही।”

नन्द मिस्री ने गर्म होकर कहा, “तेरा क्या मैं पालतू बन्दर हूँ जो तू जिस तरफ साँकल पकड़कर ले जायेगी उसी तरह जाऊँगा? मेरी इच्छा होगी तो फिर जाकर उस बेचारे को देखने जाऊँगा। तेरे मन में आवे सो कर।” इतना कहकर उसने फलाहार में चित्त लगाया।

टगर ने भी सिर्फ 'अच्छा' कहकर अपनी पगड़ी बाँधना शुरू कर दिया। मैं भी वहाँ से चल दिया। चलते-चलते मैं सोचता गया- इसी तरह इन दोनों ने बीस बरस काट दिए हैं। अनेक दफे हाथ जलाकर टगर इतना सीखी है कि जहाँ पर सत्य का बन्धन नहीं है वहाँ रास को जरा भी ढीला करना अच्छा नहीं होता। ठगाना ही पड़ता है। या तो रात-दिन सतर्क बने रहकर जोर-जबरदस्ती से अपना दखल जमाए रखना पड़ेगा, नहीं तो, जवानी की तरह नन्द मिस्री भी एक दिन अनजान में खिसक जायेगा।

किन्तु, जिसको लक्ष्य करके टगर के मन में यह विद्वेष उत्पन्न हुआ और डॉक्टर बाबू ने कुत्सित तीव्र कटाक्ष किया, वह है कौन? टगर ने कहा था- यही कार्य करते हुए मैंने अपने बाल पकाए हैं। ऐसी औरत है कहाँ जो मेरी ऑंखों में धूल झोंक सके? डॉक्टर बाबू ने अपना मन्तव्य जाहिर किया था कि ऐसी घटनाएँ नित्य ही देखते रहने के कारण उनकी ऑंखों में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो गयी है। इसमें यदि भूल हो, तो वे ऐसी ऑंखों को निकाल फेंकने के लिए तैयार हैं।

ऐसा ही होता है। दूसरे का विचार करते समय किसी मनुष्य को कभी यह कहते नहीं सुना कि वह अन्तर्यामी नहीं हैं, अथवा कहीं भी उसका कोई भ्रम या प्रमाद हो सकता है। सभी कहते हैं कि मनुष्य को चीन्हने में हम बेजोड़ हैं और इस विषय में हम एक पक्के जौहरी हैं। फिर भी, संसार में मैं नहीं जानता कि कभी किसी ने अपने खुद के भी मन को ठीक तरह से पहिचाना हो। मगर हाँ, मेरे समान जिसने भी कहीं कोई कठिन चोट खाई है, उसे अवश्य ही सावधान होना पड़ा है। यह बात उसे मन ही मन मंजूर करनी ही पड़ती है कि संसार में जब अन्नदा जीजी सरीखी स्त्रियाँ भी हैं, तब बुद्धि के अहंकार से दूसरे को हीन और नासमझ समझकर खुद बुद्धिमान बनने की अपेक्षा, सब-कुछ अच्छी तरह जानते हुए भी, नासमझ बनने में ही एक तरह से अधिक बुद्धिमानी है। इसलिए, इन दो परम विज्ञ स्त्री-पुरुषों के उपदेश की मैं अभ्रान्त न मान सका। किन्तु डॉक्टर बाबू ने जो कहा था कि अत्यन्त 'फॉरवर्ड' है, सो ठीक मालूम हुआ। और, केवल यही बात मुझे रह-रहकर चुभने लगी।

बहुत रात गये मैं फिर बुलाया गया। इस दफे इस औरत का मुझे परिचय प्राप्त हुआ। नाम था अभया। उत्तरराढ़ी कायस्थ है, घर है बालूचर के निकट। जो व्यक्ति बीमार पड़ा है वह गाँव के रिश्ते से भाई होता है, नाम है उसका रोहिणी सिंह। “दवा से रोहिणी बाबू को काफी लाभ पहुँचा है”, इस तरह कहना आरम्भ करके थोड़े ही समय में अभया ने मुझे अपना आत्मीय बना लिया। किन्तु मुझे यह तो स्वीकार करन

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